मंदिर का उद्देश्य

मंदिर का उद्देश्य

 

प्राचीन मिस्री मंदिरों के धार्मिक कार्य को अनदेखा करने की सामान्य प्रवृत्ति रही है। इसके बजाय, उन्हें केवल किसी आर्ट गैलरी और/या इतिहास की अस्पष्ट तस्वीर को जोड़ने वाले टुकड़ों के रूप में देखा जाता है। जबकि वास्तव में, मिस्र के मंदिर, संपूर्ण जगत और सूक्ष्म जगत (मानव) को जोड़ने वाली कड़ी थे। यह वह मंच था, जहाँ नेतेरू (देवी-देवताओं) और जनता के प्रतिनिधि राजा की बैठकें संपन्न होती थीं। हमें इसे रचना और क्रिया के बीच संबंध के रूप में देखने का प्रयास करना चाहिए। मिस्री मंदिर, हर एक के लाभ हेतु, दैवीय ऊर्जा उत्पन्न करने और प्रदान करने वाले यंत्र थे। यह ऐसी जगह थी जहाँ नेतेरू (देवी/देवता) की ब्रह्मांडीय ऊर्जा अवतरित होती तथा भूमि और उसके लोगों को सराबोर कर डालती। जैसा कि विभिन्न प्राचीन मिस्री लेखों में वर्णित है, कोई मंदिर या गोपुर:

आकाश के खंभे जैसा है, (मंदिर) स्वर्ग जैसा है, अपने चार स्तंभों पर टिका है … आकाश के क्षितिज की तरह चमकता है… नेतेरू के स्वामी का घर है…

मंदिर की योजना, दीवारों पर उत्कीर्ण चित्र, तथा पूजा की मिली-जुली शक्तियां, मिलकर एक ही लक्ष्य की ओर जातीं थीं, उस आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर; जो अलौकिक शक्तियों को जागृत करता, जिससे देश में समृद्धि आती।

इसलिए मिस्री मंदिर हमारी ‘‘आधुनिक’’ समझ वाले सार्वजनिक पूजा स्थल नहीं थे। ये वास्तविक दैवीय स्थान थे जो केवल पुजारियों के लिए सुलभ थे, उसके आंतरिक गर्भगृह में केवल वे ही प्रवेश कर सकते थे, जहाँ पवित्र संस्कार और समारोह संपन्न होते थे। कई मामलों में, केवल राजा या उसके अधिकृत स्थानापन्न को ही प्रवेश करने की अनुमति थी।

आम जनता की भागीदारी, मंदिरों के बाहर आयोजित होने वाले विभिन्न देवताओं से जुड़े पर्वों और समारोहों में हुआ करती थी। ब्रह्मांडीय तालमेल को कायम रखने के लिए आम भागीदारी आवश्यक थी, इसलिए यह ‘‘पूजा’’ का अनिवार्य अंग था, जिसे निभाना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था। (अधिक विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें, मुस्तफ़ा ग़दाला द्वारा लिखित मिस्री रहस्यवादः पथ के साधक।)

आमतौर पर, मिस्री मंदिर ईंट-गारे की विशाल दीवार से घिरे हुए होते थे। यह दीवार मंदिर को आसपास की दुनिया से अलग करती थी, जो प्रतीकात्मक रूप से अराजक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। सांकेतिक रूप से, गारा या कीचड़ आकाश और धरती के मिलन से उत्पन्न होता है। इसलिए ईंट की दीवार को आमतौर पर लहरदार प्रवाह वाला बनाया जाता था, जो सृष्टि के पहले चरण यानी आदि जल का प्रतीक है।

मंदिर की बाहरी दीवारें किसी किले जैसी होती थीं, ताकि हर पाप से इसकी रक्षा कर सके। मंदिर में अंदर जाने के लिए दो गोपुर होते थे, जिनके बीच खुला आँगन होता था। कहीं-कहीं इस आँगन में किनारे की ओर स्तंभ-श्रृंखलाएं और मध्य में एक वेदी होती थी। इसके बाद, मंदिर के अक्षरेखा से लगा स्तंभों वाला मण्डप (हाइपो-स्टाइल) होता था, जिसके इर्द-गिर्द अक्सर छोटे-छोटे कमरे होते थे, जिनका उपयोग मंदिर के उपकरणों के भंडारण के लिए किया जाता था। अंत में, गर्भगृह होता था, जो एक अंधेरा कमरा होता था, जिसमें मंदिर होता जहाँ नेतेर की मूर्ती रखी रहती थी। गर्भगृह के कपाट पूरे साल बंद रहते थे, जिन्हें केवल बड़े पर्वों पर खोला जाता था। गर्भगृह को महान आसन कहा जाता था। मंदिर की दीवारों के बाहर पुजारियों के आवास, कार्यशालाएं, भंडार तथा अन्य भवन होते थे।

 

[एक अनुवादित अंश: The Ancient Egyptian Metaphysical Architecture द्वारा लिखित मुस्तफ़ा ग़दाला (Moustafa Gadalla) ]

https://egyptianwisdomcenter.org/product/the-ancient-egyptian-metaphysical-architecture/

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