मिस्र के लोग

मिस्र के लोग

 

अपरिवर्तनीय मिस्रवासीः

मिस्रवासी ज़बर्दस्त रूढ़ीवादी होते हैं। मिस्र के समूचे इतिहास के दौरान, परम्पराओं के प्रति निष्ठा रखने पर ज़ोर दिया जाता रहा और मिस्रवासी इस सिद्धांत से कभी विचलित नहीं हुए। दुनिया के सबसे पुराने संरक्षित लेख (5,000 वर्ष पूर्व) में मिस्री वज़ीर पिताह होतेप ने कहा थाः

अपने पिता (पूर्वजों) की शिक्षाओं या निर्देशों में कोई भी सुधार या परिवर्तन न करें—एक शब्द भी नहीं। और इस सिद्धांत को भावी पीढ़ियों के लिए शिक्षा का आधार बनाएं।

मिस्री इस सिद्धांत से कभी भी विचलित नहीं हुए। प्रारंभिक इतिहासकारों ने इस तथ्य को सत्यापित किया है, जैसे कि हेरोडोटस ने द हिस्ट्रीज, बुक 2, [79] में कहा हैः

मिस्रवासी अपनी स्थानीय रीति-रिवाजों को निभाते हैं, और कभी भी कोई बाहरी तौर-तरीका नहीं अपनाते।

हेरोडोटस, द हिस्ट्रीज, बुक 2, [91]:

मिस्र के लोग यूनानी रीति-रिवाजों को अपनाना नहीं चाहते, या इसे समान्य तौर पर कहें तो वे किसी भी अन्य देश के रीति-रिवाजों को अपनाना नहीं चाहते।

मिस्रवसियों में इस तरह के रूढ़िवाद का सार उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपरा पालन के नियम में निहित है। वो जो कुछ भी करते, उनके हर कार्य, हर गतिविधि, हर निर्णय का पालन करने और उसे न्यायसंगत ठहराने के लिए उन्हें अपने पूर्वजों की परंपराओं की कसौटी पर खरा उतरना ज़रूरी था। प्राचीन और बलदी मिस्रियों का समूचा समाजशास्त्र और उनका अस्तित्व, शुरु से लेकर अंत, केवल पुरानी परंपराओं की एक लंबी ज़ंजीर है—जिसकी हर एक कड़ी और हर एक कील, रीति-रिवाज और नियम के रूप में उनके आध्यात्मिक पिता से उनके नश्वर अस्तित्व तक पहुँचती थी। प्लेटो और अन्य लेखकों ने भी मिस्रियों द्वारा अपने प्रथाओं के संपूर्ण अनुपालन की पुष्टि की है।

तब से लेकर आजतक इस उनका यह रवैया ज़रा भी नहीं बदला, और तब से मिस्र जाने वाले हर यात्री ने रूढ़ियों से उनके इस लगाव की पुष्टि की है। अब यहाँ ऐसे सभी झूठे दावों का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाएगा जो कहते हैं, कि प्राचीन मिस्रियों ने अपने तरीकों, भाषाओं, धर्म, परंपराओं आदि को बदल लिया, और दिखाया जाएगा कि ऐसे दावे केवल मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। जबकि सच्चाई यह है कि प्राचीन परंपराएं कभी मरीं नहीं, बल्कि वे बेहद ख़ामोशी के साथ उन बहुसंख्यकों के अंदर ज़िंदा रहीं जिन्हें बलदी कहा जाता है (या वे खुद को कहते हैं) जिसका अर्थ होता है, मूलनिवासी। ये ख़ामोश बहुसंख्यक मिस्र के मुखर अल्पसंख्यकों (उच्च सरकारी अधिकारियों, विद्वानों, पत्रकारों, और स्वघोषित बुद्धिजीवियों को अफ़रंगी (फ़िरंगी?) कहते हैं, जिसका मतलब होता है, विदेशी। अफ़रंगी वे मिस्री लोग हैं, जिन्होंने मिस्र को जीतने वाले विदेशी विजेताओं को खुश करने और ऊँचा ओहदा पाने के लिए मिस्र की विरासत से समझौता कर लिया। अरब विजेताओं जैसी बाहरी ताकतों के पिट्ठू बन कर अफ़रंगियों ने, यहाँ के मूल निवासी बलदियों पर शासन और आधिपत्य जमा लिया।  अफरंगी बिल्कुल अपने विदेशी आकाओं की तरह ही क्रूर, घमंडी और निकम्में होते हैं। विदेशी शक्तियों के मिस्र से जाने के बाद, मिस्री अफ़रंगियों ने धार्मिक शासकों के रूप में अपनी भूमिका को आगे बढ़ाया। प्राचीन मिस्री पूर्वजों की मशाल को थामे—बदलाव से दूर भागने वाले बलदी—अपनी नागरिकता से वंचित कर दिए गए—जिसके बारे में आगे चर्चा की गई है।

 

‘‘नस्लवादी धर्म’’

यह एक आम मान्यता है कि इतिहास नवीनतम विजेताओं द्वारा लिखा (या सही-सही कहें तो गढ़ा या अपने रंग में रंगा) जाता है। फलस्वरूप, बार-बार इस बात को लिखा और दोहराया गया कि प्राचीन मिस्रियों ने टॉलमी और रोमनों के आधिपत्य तथा शासन को स्वीकार कर लिया और उन्होंने स्वेच्छा अपने धार्मिक मान्यताओं को त्याग कर ईसाई धर्म अपना लिया, फिर कुछ ही समय बाद, उन्होंने इस्लाम धर्म को ईसाईयत के विकल्प के रूप में अपना लिया। इसका नतीजा ये हुआ कि तरह-तरह के विरोधी पक्ष उभर आए (यूरोपवादी, अफ्रीकावादी, इस्लामवादी, ईसाई, … आदि), और प्राचीन मिस्र का उपयोग अपने-अपने एजेंडे को फैलाने में करने लगे, और वे ज़ोर देकर कहने लगे कि प्राचीन धर्म, भाषा और परंपराएं ख़त्म हो चुकी हैं। इस तरह के निराधार झूठ को अल्पसंख्यक अफ़रंगी मिस्रियों ने हवा दी—जो 640 ई. से ही अरबों का समर्थन करते आए हैं—तथा अपने पूर्वजों की विरासत को नीचा दिखाने में अपनी पूरी ताकत झोंकते रहे हैं।

बलदी मिस्रियों की दब्बू प्रकृति के कारण, बहुत से लोगों ने मिस्रियों की ‘‘पहचान’’ को लेकर अपने-अपने ‘‘सिद्धांत’’ गढ़ लिए, जिनका कोई वैज्ञानिक या ऐतिहासिक आधार नहीं है। उनके इन खोखले दावों का आधार मिस्री लोगों की वर्ग और नस्ल से जुड़ी पहचान है, जो उनके कल्पित धर्मों पर आधारित है। कुछ लोग दावा करते हैं कि मिस्र की इस्लामी आबादी (लगभग 90%) अरब प्रायद्वीप से आकर बसे अरबी लोगों की है। दावा किया जाता है कि मिस्र की ईसाई आबादी (लगभग 10%) असली मिस्री हैं, जिन्हें प्राचीन मिस्रियों के वंशज, कॉप्ट कहा जाता है। जबकि दूसरों का दावा है कि मिस्र की इस्लामी आबादी 640 ईस्वी में मिस्र पर फ़तह हासिल करने वाले अरबों तथा प्राचीन मिस्रवसियों के मिश्रित रक्त हैं। प्राचीन मिस्री ‘‘रक्त’’ का अब कोई अस्तित्व नहीं है। जबकि हक़ीकत में, समस्त युगों की सैकड़ों प्राचीन मिस्री ममियों—के साथ किए गए डीएनए परीक्षण—तथा साथ ही साथ प्राचीन मिस्री मंदिरों और मक़बरों में अनेकों चित्रित आकृतियाँ—दिखाती हैं कि आज के मिस्री ‘‘मुसलमान’’ अपने प्राचीन मिस्री पूर्वजों की नस्ल के ही हैं।

मिस्र का ईसाई समाज ‘‘मुस्लिम’’ समाज से स्पष्ट रूप से अलग है। दरअसल, मिस्री ईसाई मिस्र के मूल निवासी नहीं हैं, बल्कि वे यहूदिया और सीरिया से मिस्र में आकर बसे विदेशी अल्पसंख्यक हैं, जो सेना के सैनिकों या विभिन्न प्रकार के करों को एकत्र करने वालों के रूप में रोमनों की नौकरी करने के लिए यहाँ आए। यह महज़ संयोग नहीं है कि मिस्र की वर्तमान ईसाई आबादी उन्हीं स्थानों के आसपास रहती है, जहाँ कभी रोमनों ने अपने सैन्य और प्रशासनिक (कर संग्रह) केन्द्र बनाए थे। आज 2,000 साल बाद, भी इन सीरियाई लोगों को उनके शक्लोसूरत तथा व्यवहार की विशिष्टता के कारण मिस्र के अधिकांश मूलनिवासियों के साथ आसानी से उन्हें अलग किया जा सकता है। विदेशी शोधकर्ता, जैसे ब्रिटिश शोधकर्ता, ईडब्ल्यू लेन, ने अपनी किताब, द मैनर्स एंड कस्टम्स ऑफ द मॉडर्न इजिप्शियंस (1836) में ऐसे अंतरों की पुष्टि की है।

मिस्र में रहने वाले विदेशियों (सिरीयाई और अन्य) के विपरीत, मिस्र के मूलनिवासी कभी ईसाई धर्म में परिवर्तित नहीं हुए। यह अलेक्जेंड्रिया आने वाले प्रवासी सीरियाई थे जिनके कारण मिस्र में शुरुआती ईसाई समाज बना। 312 ई. में, ईसाइयत को रोमन साम्राज्य का आधिकारिक और एकमात्र धर्म घोषित किया गया। थोड़े समय बाद, रोमन साम्राज्य का विखंडन हो गया। मिस्र 323 ई. में पूर्वी (या बिज़ैंटिन) साम्राज्य का हिस्सा बन गया। ईसाई धर्म को साम्राज्य का आधिकारिक धर्म बनाने की कॉन्स्टेंटिने की घोषणा से मिस्र पर दो तत्कालिक प्रभाव पड़ा। पहला यह, कि चर्च को अपने प्रशासनिक ढांचे की व्यवस्था को विस्तार देने तथा पर्याप्त धन इकट्ठा करने की इजाजत मिल गई, और दूसरा यह कि इससे ईसाई कट्टरपंथियों को मिस्र के मूलनिवासियों के धार्मिक अधिकारों, संपत्तियों तथा मंदिरों को नष्ट करने की छूट मिल गई। उदाहरण के लिए, जब थियोफिलस को 391 ई. में अलेक्जेंड्रिया का प्रधान बनाया गया तब मिस्र की धरती पर विनाश की आँधी चल पड़ी। मक़बरे तबाह कर दिए गए, प्राचीन स्मारकों की दीवारों को विकृत कर दिया गया, और मूर्तियों को ढहा दिया गया। अलेक्जेंड्रिया का प्रसिद्ध पुस्तकालय नष्ट कर दिया गया, जिसमें सहस्त्रों ग्रंथ मौजूद थे। प्रारंभिक कट्टरपंथी ईसाइयों ने प्राचीन मिस्री मंदिरों को हड़प लिया।  चौथी और पाँचवीं शताब्दी में, लक्सौर (थेबेस) के पश्चिमी तट पर कई प्राचीन मंदिरों को मठों में परिवर्तित कर दिया गया।

ईसाइयों की लोकप्रियता के अत्यधिक अतिरंजित दावों को साबित करने के लिए अलेक्जेंड्रिया के बाहर कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद नहीं है। प्राचीन मिस्रवासियों को ईसाई कट्टरपंथियों से किसी भी नए ‘‘ज्ञान’’ की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि जिन चीज़ों को वे अब ईसाई धर्म के नाम से बता रहे थे, वह न्यू टेस्टामेंट के काफी पहले से ही प्राचीन मिस्र में मौजूद था। ब्रिटिश मिस्री पुरातत्वशास्त्री, सर इ. ए. वैलिस, ने अपनी पुस्तक, द गाड ऑफ द इजिप्शियंस (1969) में लिखा हैः

जिस नए धर्म (ईसाइयत) का सेंट मार्क और उसके निकट अनुयायियों द्वारा वहां प्रचार-प्रसार किया गया, वह मूलरूप से ओसीरिस, इसिस और होरस की पूजा से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता था।

मिस्री संस्करण और न्यू टेस्टामेंट के संस्करण के बीच मुख्य अंतर यह है कि बाईबिल की कहानियों को ऐतिहासिक माना जाता है, जबकि ओसीरिस/इसिस/होरस की मिस्री कहानी को रूपक कथा। ब्रिटिश विद्वान ए.एन. विल्सन ने अपनी पुस्तक, जीसस में इस बात को रेखांकित करते हुए कहा हैः

इतिहास के ईसा और आस्था के मसीह दो अलग-अलग प्राणी हैं, जिनकी कहानियां बेहद अलग-अलग हैं।

शुरुआती ईसाइयों ने तथ्य और मिथक को आपस में घोल दिया। अपने सनकी जहालत में, उन्होंने प्राचीन मिस्री आध्यात्मिक रूपक को तथाकथित इतिहास बना डाला। ‘‘मसीह तुम्हारे अंदर है’’ यह प्राचीन मिस्र का सत्य संदेश था, जिसे आध्यात्मिक रूपक को इतिहास बनाने वालों ने कहीं दफ़न कर दिया। (अधिक जानकारी के लिए, मुस्तफ़ा ग़दाला द्वारा लिखित पुस्तक द एनसियंट रूट ऑफ क्रिश्चियानिटी देखें।)

चौथी शताब्दी और उसके बाद चर्च में होने वाले राजनैतिक और सैद्धांतिक संघर्षों के इतिहास को अधिकतर परमेश्वर तथा मसीह की प्रकृति एवं उन दोनों के बीच के संबंध के विवाद के तौर पर लिखा गया है। ये समूह जैकाबाइट या कॉप्टिक, तथा मेल्काइट या रॉयलिस्ट के नाम से मशहूर हुए। जैकाबाइट लोग मोनोफिसाइट मत को मानने वाले थे, जिसमें मुख्य रूप से (सभी नहीं) मिस्र में जन्में परंतु विदेशी मूल के लोग (जिन्हें गलती से मिस्र के मूलनिवासी समझ लिया गया) शामिल थे, जबकि मेल्काइट कैल्सिडान के रूढ़िवादी (आर्थोडाक्स) अनुयायी थे, जिनमें अधिकांश यूनानी या यूरोपीय मूल के लोग शामिल थे।

मोनोफिसाइट, शुरू से ही, मसीह के सिद्धांत को मानने वाले लोग थे, जो उनकी मानव प्रकृति को अस्वीकार करते और उनके ईश्वरत्व पर ज़ोर देते थे। जब रोम और कॉन्स्टेंटिनोपल के रूढ़िवादी (आर्थोडाक्स) धर्मशास्त्रियों ने 451 में कैल्सिडान की परिषद में इस बात पर सहमति व्यक्त की, कि मसीह की पूजा ‘‘दो प्रकृतियों की अभिन्न एकता’’ के रूप में की जाए, तब विपक्षी मोनोफिसाइट ने तर्क दिया कि हालाँकि मसीह ‘‘दो प्रकृतियों में से हो सकते हैं’’ परंतु वह दो प्रकृतियों में नहीं हो सकते। परिणामस्वरूप 451 में, पोप डायोसकोरस के शासनकाल के दौरान, मिस्र में मोनोफिसाइट चर्च ने मेल्काइट ऑर्थोडॉक्स चर्च से अलग होकर अपना अलग प्रधान चुन लिया।  451 में कैल्सिडान की परिषद के बाद से, दोनों चर्चों का अपना अलग-अलग पोप और प्रशासन हो गया।

हमने ‘‘कॉप्ट्स’’ के कट्टरता के बारे में बहुत सुना है। तथापि इसके ज़िम्मेदार भी वहीं हैं, क्योंकि उन्होंने अन्य धार्मिक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया, जिसमें उनके मेल्काइट ईसाई साथी भी शामिल हैं। दूसरों के धार्मिक अधिकारों के प्रति उनकी अस्वीकृति हिंसक और विनाशकारी थी। हालाँकि उन्हें अपने स्वयं के पोप चुनने की अनुमति दी गई थी, फिर भी वे मेल्काइटों और अन्य लोगों को अपने-अपने तरीके से पूजा करने का अधिकार न देने पर अड़े रहे। इस तथाकथित अत्याचार के लिए सायरस को दोषी ठहराया गया, जिसे 631 ई. में अलेक्जेंड्रिया का शाही पोप बना कर भेजा गया था। पोप के दोहरे उत्तराधिकार को कायम रखा गया था। साइरस ने पहले दोनो गुटों (मेल्काइट्स और मोनोफिसाइट) के बीच समझौता कराने की कोशिश की। मोनोफिसाइट ने समझौते को खारिज कर दिया—क्योंकि वे उसकी सत्ता को मान्यता ही नहीं देते थे।

साइरस को अपने सम्राट की ओर से आदेश को वापस लागू करना पड़ा, क्योंकि मोनोफिसाइटों ने अपने कट्टरपंथी व्याख्याओं से असहमत लोगों को आतंकित और बर्बाद कर दिया था। तो क्या साइरस ने मोनोफिसाइटों पर अत्याचार किया, या फिर उन्होंने उसे और उसकी सत्ता को खारिज कर के उसकी प्रतिक्रिया को आमंत्रण दिया था? पूरी तस्वीर ये है कि, वे कई सदियों तक मिस्री धरती और वहाँ के लोगों (अपने मेजबान) पर अत्याचार करते रहे, जिसके जवाब में साइरस ने उनकी जूती उन्हीं के सर पर दे मारी।

जब 639 ई. में मुस्लिम अरब, कुछ हजार लोगों के साथ मिस्र को फ़तह करने आए, तब गैर-मिस्री ईसाई मोनोफिसाइटों के सक्रिय समर्थन और सहायता से उनका कार्य अपेक्षाकृत सरल हो गया। अरब योद्धाओं तथा बिज़ैंटियन्स के बीच युद्ध और राजनैतिक तिकड़मों के दौर के बाद, दो साल के अंदर ही अंदर, 6 नवंबर, 641 को साइरस ने अरब मुस्लिमों के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसमें रोमन सैनिकों की पूरी तरह से वापसी, सभी समर्थ पुरुषों पर शुल्क, तथा सभी ज़मींदारों के लिए कर की शर्तें स्वीकार की गईं। संधि के पक्षों में एक तरफ़ मुस्लिम अरब थे और दूसरी तरफ़ गैर-मिस्री ईसाई, जो उस देश—(मिस्र)—को सौंप रहे थे, जो उनका था ही नहीं।

ईसाइयों के सक्रिय सहयोग के कारण, अरब मुस्लिम विजेताओं ने मोनोफिसाइट चर्च का समर्थन किया, जो मिस्र के मूल निवासियों पर लगाए गए व्यक्ति कर को एकत्र करने में उनका सहयोग करते थे। दूसरे शब्दों में, अरबों ने कर संग्रह के लिए उसी प्रशासन को जारी रखा जो रोमन/बिज़ैंटिन शासन काल में हुआ करते थे। बदले में, ईसाइयों को अपने धर्म का पालन जारी रखने के अधिकार की गारंटी दी गई थी। मिस्र में बिज़ैंटिन शासन की अंतिम हार 642 ई. में तब हुई जब उनके सैनिकों ने अलेक्जेंड्रिया को खाली कर दिया। उस दिन से मिस्र, प्रत्यक्ष रूप से विदेशियों या अप्रत्यक्ष रूप से अफ़रंगी मिस्रियों के शासन के वाला एक इस्लामिक/अरब उपनिवेश बन गया।

इस्लामी शासन के तहत, एक व्यक्ति को आधिकारिक तौर पर तीन ‘‘अनुमोदित’’ धर्मों (इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, और यहूदी धर्म) में से किसी एक के प्रति अपनी निष्ठा घोषित करनी पड़ती है, क्योंकि इस्लामी कानून के तहत ईसाइयों और यहूदियों के लिए एक अलग ‘‘कर’’ (जिसे जज़िया कहा जाता है) लागू होता है। अरब विजेताओं (और उनके ईसाई कर संग्राहकों) के दबाव और डर से मिस्र की प्रजा को, को तीन ‘‘अनुमोदित’’ धर्मों में से एक के प्रति निष्ठा घोषित करनी पड़ी। इस तरह की घोषणा केवल एक मजबूरी थी, न कि सच्चा धर्म परिवर्तन। एक बार यदि किसी व्यक्ति ने ‘‘इस्लाम’’ अपनाने घोषणा कर दी, तो फिर वह कभी भी बदल नहीं सकता, क्योंकि इसे ईश्वर का अपमान माना जाएगा, जिसके कारण वह कभी किसी मुस्लिम के हाथों मारा भी जा सकता है।  इसके अतिरिक्त, मुसलमानों की सभी संतानों को—इस्लामिक कानून के तहत—स्वाभाविक रूप से मुसलमानों मान लिया जाता है—इसलिए वह कभी इस्लाम छोड़ नहीं पाता।

कॉप्ट, शब्द ईसाइयत से पहले का है, जिसे यूनानी लोग मिस्रियों के लिए इस्तेमाल करते थे। 640 ई. के बाद, अरबों ने सामान्यतः इस शब्द का इस्तेमाल गैर-मुस्लिम मिस्री लोगों के लिए किया जबकि मिस्र के इस्लामिक समाज को अरब कहा जाने लगा। दूसरे शब्दों में, 640 ई. के विजेताओं ने मिस्रियों के इस्लाम अपनाने के बाद उनकी नस्ल को भी अरब में परिवर्तित कर दिया। फलस्वरूप, सातवीं शताब्दी तक एक अलग मायने वाले कॉप्ट शब्द का अर्थ बदल कर—मिस्री के बजाय ईसाई हो गया।

मिस्रवासियों को एक बार फिर से बिना किसी ख़ास प्रतिरोध के अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। बलदी मिस्रियों ने इस्लाम के बारीक आवरण के अंदर अपनी प्राचीन परंपराओं को कायम रखना सीख लिया।  इस आम मिस्री मुहावरे में उनके अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद बख़ूबी दिखती है, ‘‘वह अंडे और पत्थर से खेलता है—ताकि पत्थर से उसका नाजुक अंडा टूटे नहीं। (मिस्र के ‘‘इस्लामीकरण’’ के बारे में और अधिक जानने के लिए ग़दाला द्वारा लिखी अन्य पुस्तकें, जैसे मिस्री रहस्यवादः पथ के साधक, मिस्र का ब्रह्माण्ड विज्ञानः सजीव ब्रह्मांड और द एंड्योरिंग एनसियंट इजिप्शियन म्यूज़िकल सिस्टम आदि देखें।)


प्राचीन (और वर्तमान दिन) मिस्र की आबादी, उनके स्वभाव, आवास, आदि के बारे में अधिक जानकारी के लिए देखें:

  • इसिस :प्राचीन मिस्री संस्कृति का रहस्योद्घाटन- द्वितीय संस्करण द्वारा लिखित मुस्तफ़ा ग़दाला (Moustafa Gadalla) 
  • इजिप्शियन मिस्टिसिज़्मः पथ के साधक   द्वारा लिखित मुस्तफ़ा ग़दाला (Moustafa Gadalla) 

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