नेतेरु — दिव्य ऊर्जा

नेतेरु — दिव्य ऊर्जा

1. सृजनपूर्व प्रारंभ-नून-शून्यता

मिस्र का प्रत्येक सृजन शास्त्र इसी बुनियादी विश्वास के साथ शुरू होता है कि सृष्टि से पहले, चारों तरफ एक अनंत, असीम और अव्यवस्थित आदि तरल कुंड था। मिस्रवासी इस ब्रह्मांडीय सागर/जलीय कोलाहल, को नू/नाई/नून/—तत्वों की अध्रुवीकृत अवस्था कहते थे। जल निराकार होता है, यह खुद से कोई भी आकार नहीं लेता, और न ही यह किसी आकार को ग्रहण करने का प्रतिरोध करता है।

वैज्ञानिक, ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले कुंड वाली प्राचीन मिस्री व्याख्या से सहमत हैं। वैज्ञानिक, इस कुंड को न्यूट्रॉन सूप कहते हैं, जहां न तो इलेक्ट्रॉन हैं और न ही प्रोटॉन, बल्कि केवल न्यूट्रॉन मौजूद हैं, जो विशाल आकार के बेहद घने नाभिक का निर्माण करते हैं।

सृष्टि से पहले की इस कोलाहल भरी अवस्था का कारण तत्वों का संपीड़न था, अर्थात् परमाणु अपने सामान्य अवस्था में नहीं थे, बल्कि वे एकदूसरे के साथ इतनी सघनता से भिंचे हुए थे, कि एक सामान्य परमाणु द्वारा घेरी जाने वाली जगह जितने स्थान में कई परमाणु नाभिक ठुँस गए थे। ऐसी हालात में, इन परमाणुओं के इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षाओं से बाहर निचुड़ गए, और स्वतंत्र रूप से (आवारा हालत में) उधर उधर विचरण लगे।

नू/नाई/नून एक आत्मगत अस्तित्व है, जो सृजन से पहले की अपरिमित, अपरिभाषित, गैर-विभेदित ऊर्जा/तत्व है, यह जड़ या निष्क्रिय अवस्था का प्रतीक हैः जो  अपने रूपांतरण का कारण नहीं हो सकता है।

निःसंदेह “अनंत” शब्द “अपरिमित”, अपरिभाषित, असीमित, निराकार, अविभेदित जैसे शब्दों का पर्याय है। इसका मतलब यह है कि जिस ऊर्जा/तत्व से सभी चीजों का सृजन हुआ, उसे अवश्य ही अपने तात्विक अवस्था में असृजित, अपरिभाषित, अविभेदित इत्यादि होना चाहिए। अगर जगत की आधारभूत सामग्री की कोई तात्विक परिभाषा (स्वरूप) हुई, तो वह उसके  असीम में तब्दील होने की क्षमता को सीमित कर देगी। इसके तात्विक परिभाषा का न होना, ईश्वर की सृजनात्मक सर्वशक्तिमत्ता के लिए परम आवश्यक है।

 

2. चलिए सृष्टि को आरंभ होने दिया जाए

सृष्टि पूर्व के न्यूट्रॉन सूप में संघनित ऊर्जा लगातार बढ़ती जा रही थी। करीब 15 अरब साल पहले, यह संघनित ऊर्जा जब अपनी अधिकतम एकाग्रता पर जा पहुँची, तो विस्फोट हुआ और विस्तार प्रारंभ हुआ।

इस विस्फोट के ज़ोरदार आवाज के कारण ब्रह्मांड के घटक भाग टूट गए।

ठीक इसी तरह, प्राचीन मिस्री लेख भी बार-बार ज़ोर देकर ईश्वर के आदेश वाली आवाज की बात दोहराते हैं- अर्थात् आदेश वाली ध्वनि सृजन का कारण थी।

5,000 साल पुराने प्राचीन मिस्र के सबसे पुराने प्राप्त लेख, शब्द को जगत के सृजन का कारण बताते हैं। विश्व का सबसे प्राचीन लिखित लेख, मिस्र की, उजाले में आने की पुस्तक (जिसका आमतौर पर मृतकों की पुस्तक  केरूपमेंगलतअनुवादकियागया) मेंकहागयाहैः

मैं अनन्त हूँमैने ही शब्द को उत्पन्न कियामैं ही शब्द हूँ

हमें यही बात, (तुत-अंख-आमेन के धर्मस्थलों में पाया जाने वाली) दिव्य गाय की पुस्तक में भी मिलती है कि महज़ शब्दों के उच्चारण से स्वर्ग और उसके देवता अस्तित्व में आए, जिसकी ध्वनि मात्र ने ही सभी चीज़ों को उत्पन्न कर दिया। जैसे-जैसे वस्तुओं का नाम लिया गया, वैसे-वैसे वो सारी वस्तुएं अस्तित्व में आती चली गई।

नाम के वास्तविकता में आते ही, वस्तुएं भी वास्तविक बन गईं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक ध्वनि विशेष की एक सदृश आकृति भी है। आधुनिक विज्ञान ने भी स्वरूप और ध्वनि तरंग की आवृत्ति के बीच एक सीधे संबंध की पुष्टि की है।

वैज्ञानिकदृष्टिसेशब्द (कोईभीशब्द) एककंपनयुक्तजटिलतत्वहै, जोअस्थिरआवृत्तिऔरतीव्रगतिवालीएकतरंगहोतीहै।दूसरेशब्दोंमें, हवाकेकणोंकीगतिऔरस्थानोंमेंउलटफेरद्वारा-हवाकेकणोंकेसंपीड़ितहोनेसेध्वनिउत्पन्नहोतीहै, यानी, अर्थातस्वरूपकीरचनाहोतीहै।प्रत्येकध्वनितरंगआवृत्तिकाएकअपनाज्यामितीयस्वरूपहोताहै।

दिव्य ध्वनि ने, नून में संभावित निष्क्रिय ऊर्जा/तत्व को विभेदित, व्यवस्थित, संरचित-गतिज ऊर्जा- बना ब्रह्मांड के घटकों में परिवर्तित करके, वस्तुओं, विचारों, बलों और भौतिक चीजों के रूप में ढाल दिया।

जब एक प्रकार की ऊर्जा (संभावित), दूसरे प्रकार की ऊर्जा (गतिज) में परिवर्तित होती है, तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड और उसके घटक जन्म लेते हैं। सब कुछ ऊर्जाओं से ही है।

 

3. अतम—प्रकट भौतिक ऊर्जा

जैसा कि हमने देखा, सृष्टि असृजित अवस्था से उत्पन्न हुई थी। मिस्रवासी इसे नून कहते थे। रिक्त या शून्य भी ब्रह्मांड के सृजन के पूर्व की अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। कोई ब्रह्मांड नहीं: कुछ भी नहीं, शून्य, ज़ीरो। ब्रह्मांड की ऐसी अवस्था, आत्मगत अस्तित्व होने के नाते—अपरिमित, अपरिभाषित, और अविभाजित ऊर्जा/तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। इसकी जड़ ऊर्जा निष्क्रिय है।

दूसरी ओर, सृजन की अवस्था, व्यवस्थित, गठित, परिभाषित और विभेदित है। मिस्रवासियों द्वारा सृजनकाल की दिव्य ऊर्जा को समग्र रूप में अतम कहा जाता है।

सृजन, आदिकाल की सभी कोलाहल (अविभेदित ऊर्जा/पदार्थ और चेतना) की छँटाई (क्रमबद्ध करना/परिभाषा देना) है। सृष्टि से संबंधित प्राचीन मिस्र के सभी शास्त्र इसे अच्छी तरह से परिभाषित तथा स्पष्ट रूप से सीमांकित चरणों में प्रदर्शित करते हैं।

सृजन का पहला चरण आत्म-सृजन का है, जिसमें परम अस्तित्व ने सृष्टिकर्ता और परमात्मा के रूप में स्वयं का सृजन किया, यानी आत्मगत अस्तित्व (नू/नाई/नून) से वस्तुगत अस्तित्व (अतम) में रूपांतरित हुआ। जिसे आम बोलचाल में कहा जाए, तो यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे कोई नींद (अचेतन अवस्था, आत्मगत अस्तित्व) से जग कर (सचेत होना, वस्तुगत अस्तित्व) स्वयं के बारे में जागरूक हो जाए। यह ठोस धरातल पर खड़े होने जैसा है।

मिस्री मनीषियों द्वारा, नू/नाई/नून की अवस्था से जगने वाले सृष्टि के इस चरण को अतम/अतुम कहा गया।  यूनस (तथाकथित पिरामिड) लेखों में, निम्नलिखित प्रार्थना वर्णित हैः

हे अतम, तुझे सादर प्रणाम,
जो स्वयं अस्तित्व में जाए, तुझे सादर प्रणाम!
सबसे उत्तम कला तुम्हारी, सबसे ऊपर तेरा नाम,
स्वयं अस्तित्व में आने वाले, खेपरी (एक बनना) है तेरा नाम। [§1587]

अतम का मतलब होता है, सर्वस्व की एकात्मकता, संपूर्ण। अतम शब्द का मूल ‘तम’ या ‘तमाम’ है, जिसका अर्थ है पूर्ण होने वाला या ख़त्म करने वाला

प्राचीन मिस्री ग्रंथों में अतम का अर्थ है, वह जो पूर्ण करता है या संपूर्ण करता है, और रे की स्तुति में, अतम को संपूर्ण और सर्वस्व माना गया है।

प्राचीन मिस्री लेख इस बात पर ज़ोर देते हैं, कि संपूर्ण सत्ता में सर्वस्व समाहित है। प्राचीन मिस्री लेख कहते हैं:

मैं अनेक नामों और अनेक रूपों में हूँ, और मेरा अस्तित्व हर नेतेर में मौजूद है।

संख्यात्मक रूप से, एक कोई संख्या नहीं है, बल्कि संख्या के मूल तत्व का सार है, और अन्य सभी संख्याएं इसी से बनती हैं। एक, अध्रुवीकृत ऊर्जा के रूप में परमात्माकता का प्रतिनिधित्व करता है। अतम, एक की संख्या के रूप में, न तो सम है और न ही विषम बल्कि वह सम-विषम दोनों है। अतम न तो नर है और न ही नारी, बल्कि वह दोनों है।

अतम, सृजनकाल की क्रमबद्ध ऊर्जा आव्यूह की समग्रता है, जबकि नून, आत्मगत अस्तित्व वाला उच्छृंखल ऊर्जा यौगिक है। ब्रह्मांड के अंदर मौजूद समग्र दिव्य ऊर्जा को उसके अव्यवस्थित अवस्था में नून कहा जाता है, और उसके सृजन की क्रमबद्ध अवस्था/प्रक्रिया वाले बिंदु से उसे अतम कहा जाता है।

अतम, नून के भीतर मौजूद ऊर्जा, को एक क्रमबद्ध अनुक्रम में मुक्त करने का, अर्थात उसे जिवित करने का, प्रतीक है। यह वस्तुगत अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है।

जैसे 0 और 1—0 की संख्या, कुछ भी नहीं या नहीं के बराबर है, और 1 का मतलब सर्वस्व है, वैसे ही नून और अतम एक-दूसरे की छवियाँ हैं।

 

4. समस्त अस्तित्व —हो जाना

सृजन, आदिकाल की सभी कोलाहल (अविभेदित ऊर्जा/तत्व और चेतना) की छँटाई (क्रमबद्ध करना/परिभाषा देना) है। सृष्टि से संबंधित प्राचीन मिस्र के सभी शास्त्र इसे अच्छी तरह से परिभाषित तथा स्पष्ट रूप से सीमांकित चरणों में प्रदर्शित करते हैं।

सृष्टि के बीज— जिनमें से उत्पन्न सब कुछ अतम है।

और जैसे एक पौधा बीज के भीतर निहित होता है, ठीक उसी प्रकार जगत में उत्पन्न हर चीज अतम है।

प्राचीन मिस्री पेपिरस जिसे सामान्यतः ब्रेमनर-राईन्ड पेपिरस के नाम से जाना जाता है, में अतम, वह एक जो सर्वस्व है, जगत के स्वामी के रूप में, घोषणा करता है।

जब मैंने स्वयं को अस्तित्व में प्रकट किया, तो अस्तित्व का अस्तित्व हुआ।
मैं अस्तित्ववान के रूप में अस्तित्व में आया, जो पहली बार में अस्तित्व में आया।
अस्तित्ववान के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में आया, इसलिए मैं अस्तित्व में हूँ।
और इस प्रकार अस्तित्ववान अस्तित्व में आया।

‘दूसरे शब्दों में, जब जगत का स्वामी अस्तित्व में आया, तब सारी सृष्टि अस्तित्व में आई, क्योंकि उस संपूर्ण में समस्त सम्मिलित हैं।”

 

5. नेतेरु — दिव्य ऊर्जा

हमनेअभीदेखाकि, जबजगतकास्वामीअस्तित्वमेंआया, तबसारीसृष्टिअस्तित्वमेंआई, क्योंकिउससंपूर्णमेंसमस्तसम्मिलितहैं।

सृष्टि के चक्र का सृजन और पालन दिव्य शक्तियों या दिव्य ऊर्जाओं द्वारा होता है। सृष्टि के निरंतर चक्र जैसी ये ऊर्जाएं, परिवर्तन की प्रक्रिया, यानी जन्म-जीवन बुढ़ापा-मौत-मृत्यु और पुनर्जन्म से हो कर गुजरती हैं। मनुष्य के रूप में, हमारे पास भी ठीक ऐसी ही जीवन शक्तियां हैं, जो हमारे जीवनकाल में रूपांतरित होती चली जाती हैं। हमारे मानव शरीर में कई चक्र होते हैं, जो हमारे जीवन के अस्तित्व को नियंत्रित करते हैं। हमारी मृत्यु के साथ ही ये सारी शक्तियां भी मर जाती हैं।

मिस्रवासी इस दिव्य ऊर्जा को नेतेरु कहते थे। ब्रह्मांड का मूल विषय इसकी चक्रीय प्रकृति है। नेतेरु (NeTeRu) प्रकृति (NaTuRe) की वो शक्तियाँ हैं, जिनके दम पर यह संसार फलता-फूलता और चलता है। उन्हें केवल देवी-देवता कह देना, एक गलत प्रभाव छोड़ता है।

सृजन चक्र में स्वयं को प्रकट करने वाली दिव्य ऊर्जा, जिन घटक रूपों के माध्यम से परिभाषित हुई, उन घटक रूपों को प्राचीन मिस्रवासियों द्वारा नेतेरु कहा जाता था। सृष्टि के सृजन और पालन के लिए इस दिव्य ऊर्जा का पुरुष तत्व और स्त्री तत्व के रूप में माना जाना जरूरी है।

इसलिए, प्राचीन मिस्रवासियों ने अलौकिक शक्तियां को नेतेर्त (स्त्री तत्व) और नेतेर (पुरुष तत्व) के रूप में व्यक्त किया।

मिस्री शब्द ‘नेतेर’ या नेचर (प्रकृति) या ‘नेतजेर’ का अर्थ ऐसी शक्ति से है, जो जीवन को उत्पन्न करने और उत्पन्न होने के बाद उसका पालन करने में सक्षम है। जिस प्रकार सृष्टि के सभी अंग जन्म-जीवन-मृत्यु-पुनर्जन्म के चक्र से गुजरते हैं, ठीक उसी प्रकार चालक शक्तियां भी चक्र के चरणों से होकर गुजरती हैं। इसलिए दिव्य ऊर्जा के रूप, प्राचीन मिस्री नेतेरु भी जन्म-विकास-मृत्यु और नवीकरण के उसी चक्र से होकर गुजरते रहते हैं। जैसा प्लूटार्क ने उल्लेख किया है, कि यह मान्यता आम थी, कि प्रकृति की विभिन्न शक्तियां जिन्हें नेतेरु कहते हैं, निरंतर परिर्तन के अधीन, जन्म लेती, या बनाई जाती हैं, और फिर बूढ़ी होती हैं, मरती हैं और फिर उनका पुनर्जन्म होता हैं।

हम इसके लिए कैटरपिलर का उदाहरण दे सकते हैं, जो जन्म लेता है, जिवित रहता है, फिर अपना ही कोकून बनाता है, जहां वह मरता है या यूं कहें कि एक तितली में परिवर्तित होता है, वह तितली अंडे देती है, और फिर यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती चली जाती है। यानी हमने जो जाना वह यह कि, ऊर्जा का एक स्वरूप या अवस्था से दूसरे स्वरूप या अवस्था में चक्रीय परिवर्तन होता रहता है।

जलचक्र इसका एक और उदाहरण है—जो जल वाष्पित होता है, वह बादलों का निर्माण करता है और फिर वापस धरती पर बारिश के रूप में बरस जाता है। यह सभी, ऊर्जा के विभिन्न स्वरूपों का एक सुव्यवस्थित चक्रीय परिवर्तन है।

जब आप नेतेरु को देवी-देवता नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय ऊर्जा शक्ति मानते हैं, तब आप देख सकते हैं कि प्राचीन मिस्री प्रणाली कितने उत्कृष्ट ढंग से ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती है। दार्शनिक तौर पर, यह प्राकृतिक चक्रीय परिवर्तन एक कहावत पर सटीक बैठती हैः

चीजें जितनी अधिक बदलती हैं, उतनी ही वे जस की तस रहती हैं।’

वैज्ञानिक भाषा में, इसे ऊर्जा संरक्षण का प्राकृतिक नियमकहाजाताहैः इस सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा का कभी ह्रास नहीं होता बल्कि केवल उसका स्वरूप बदलता है, और इस प्रकार भौतिक प्रणाली की कुल ऊर्जा, जैसे ब्रह्मांड इत्यादि, में तो कमी की जा सकती है और ही वृद्धि।

 

6. ब्रह्मांडीय ऊर्जा आव्यूह और आइंस्टीन

सृष्टि के प्रारंभिक क्रियाओं के फलस्वरूप ऊर्जा का यह आव्यूह अस्तित्व में आया और इसके सिलसिलेवार प्रभाव के फलस्वरूप ब्रह्मांड बना। इस आव्यूह में संगठित सोपान होता है। अस्तित्व के सोपान का प्रत्येक स्तर साक्षात् ईश्वर है—जिसकी रचना उसके स्तर के ठीक ऊपर वाले स्तर पर मौजूद चेतना ने की है। अस्तित्व के प्रत्येक चरण के द्वारा किया जाना वाला आत्म-चिंतन उसके बाद के चरण को अस्तित्व में लाता है। इस प्रकार, ऊर्जा का सोपान परस्पर संबंधित होता है, तथा प्रत्येक स्तर अपने से नीचे वाले स्तर पर कायम रहता है। ऊर्जा के इस सोपान को, आपस में गहराई से संबंधित प्राकृतिक नियमों के विस्तृत आव्यूह में, बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से सेट किया गया है। यह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों होता है।

प्राचीन मिस्री और बलदी, भौतिक शरीर के आध्यात्मिक अवस्था के बीच कोई भेद नहीं करते थे/हैं। इस तरह का अंतर एक मानसिक भ्रम है। हम एक साथ, सर्वाधिक आध्यात्मिक से लेकर सर्वाधिक भौतिक तक, कई अलग-अलग स्तरों पर रहते हैं। इन्हीं सिद्धांतों को आइंस्टीन भी मानते हैं।आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के बाद से, यह विदित और स्वीकृत है कि पदार्थ ऊर्जा का एक स्वरूप हैं, यानी पदार्थ संघनित और जमी हुई ऊर्जा है। पदार्थ या द्रव्यमान के संरक्षण के प्राकृतिक नियम भी यही कहता है कि, पदार्थ किसी भी भौतिक या रासायनिक परिवर्तन के दौरान नष्ट नहीं होता है।

ऊर्जा, अलग-अलग गति से चलने या घूमने वाले अणुओं से बनती है। “भौतिक” जगत में, अणु बेहद धीमी और स्थिर गति से घूमते हैं। यही कारण है कि, सांसारिक अनुभूति में हमें चीज़ें ठोस दिखाई देती हैं। गति जितनी धीमी होती है, चीजें उतनी ही अधिक सघन या ठोस होती हैं। आध्यात्मिक (आत्मा) संसार में, अणु बहुत तेज या परालौकिक आयाम में कंपन करते हैं—अतः वहां चीजें मुक्त और कम सघन होती हैं।

इस प्रकार देखा जाय, तो ब्रह्मांड मूल रूप से ऊर्जा के अलग-अलग क्रम और घनत्व का एक सोपान है। हमारी इंद्रियाँ केवल बहुत अधिक घनत्व वाली हुछ ऊर्जाओं, अर्थात् तत्वों का ही अनुभव कर पाती हैं। इस प्रकार, ऊर्जा का सोपान परस्पर संबंधित होता है, तथा प्रत्येक स्तर अपने से नीचे वाले स्तर पर कायम रहता है। ऊर्जा के इस सोपान को, आपस में गहराई से संबंधित प्राकृतिक नियमों के विस्तृत आव्यूह में, बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से सेट किया गया है। यह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों होता है।

सार्वभौमिक ऊर्जा आव्यूह इस संसार को, मनुष्यों (जीवित एवं मृत), पशुओं, पेड़-पौधों, तथा प्राकृतिक और अलौकिक चीज़ों के बीच संबंधों वाली जटिल प्रणाली के उत्पाद के रूप में रखता है। इस तर्क को अक्सर जड़ात्मवाद या जीववाद कहा जाता है, क्योंकि इस मत का बुनियादी सिद्धांत है, कि जीवन शक्तियों के कारण ही सभी चीज़ें सजीव (सक्रिय) हैं। जैसा कि गतिज सिद्धांत में स्वीकार किया गया है, हर वस्तु का प्रत्येक सूक्ष्म कण निरंतर गतिशील, यानी सक्रिय होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सब कुछ सजीव (सक्रिय) है—पशु, पेड़, चट्टान, पक्षियाँ, यहां तक कि हवा, सूरज और चाँद, यानी सब कुछ।

ऊर्जा के तीव्र स्वरूप -ये ऊर्जाएं ब्रह्मांड में अदृश्य होती हैं- को बहुत से लोग आत्मा भी कहते हैं। अणुओं की अलग-अलग गतियों के अनुसार, ऊर्जा या आत्मा, घनत्व के अलग-अलग क्रमों में संगठित होती हैं। ये तीव्र (अदृश्य) ऊर्जाएं विशेष क्षेत्रों में निवास करती हैं, या किसी विशेष प्राकृतिक चीज़ से जुड़ी होती हैं। आत्माएं (ऊर्जाएं) एक परिवार जैसे (परस्पर संबंधित समूहों में) रहती हैं।

ऊर्जाएं अपने इच्छानुसार, मानव, पशु, पौधे, या और अधिक सघन ऊर्जा (पदार्थ) वाला कोई भी अन्य रूप धारण कर सकती हैं। आत्मा जन्म के समय मानव के शरीर को सजीव करती है, तथा मृत्यु हो जाने पर छोड़ देती है। कभी कभी, किसी शरीर में एक से अधिक ऊर्जाएं या आत्माएं में प्रवेश कर जाती हैं।

हम अक्सर सुनते हैं कि ‘अमुक व्यक्ति की मानसिक हालत ठीक नहीं है’, या ‘फलां आदमी पागल हो गया है’, या ‘किसी पर कुछ सवार हो गया है’, या ‘कोई व्यक्ति बहुगुणित व्यक्तित्व का शिकार हो गया है’। हम सब पर ऊर्जाओं (आत्माओं) का थोड़ा बहुत असर पड़ता है।

बलदी और प्राचीन मिस्रवासियों द्वारा बहुत पहले से यह माना जाता रहा है कि हर चीज में ऊर्जा मौजूद है। शबाका प्रस्तर-पटट (आठवीं सदी ई.पू.) में स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि हर पत्थर, खनिज, लकड़ी, इत्यादि में ब्रह्मांडीय ऊर्जाएं (नेतेरु) मौजूद हैं:

और इस प्रकार नेतेरु (देवीदेवता) ने अपने शरीर में प्रवेश किया, हर प्रकार की लकड़ियों में, हर प्रकार के खनिज में, हर प्रकार की मिट्टी में, उसके (अर्थात् पृथ्वी) ऊपर उगने वाली हर चीज़ में।

 

7. नेतेरु और फरिश्ते

दिव्य ऊर्जाएं/शक्तियाँ/ताकतें नेतेरु (देवी-देवता) हैं, जिन्होंने अपने अंतःक्रियाओं और गतिविधियों के ज़रिए ब्रह्मांड का सृजन और पालन किया तथा करते हैं।

नेतेरु (देवी-देवता), और उनके कार्यों को बाद में अन्य लोगों ने स्वर्गदूतों के रूप में स्वीकार किया। मृत सागर के पास कुमरान के गुफा में पाए गए ड्यूट्रोनामी (32:43), के साँग्स आफ मोजेज़ में बहुवचन में देवताओं शब्द का उल्लेख हैः

हे आकाशों, हर्ष करो, हे देवताओं उसे प्रणाम करो

न्यू टेस्टामेंट (हिब्रूज, 1: 6), में जब इस अंश को उद्धृत किया गया तब देवताओं  शब्द को ‘परमेश्वर के सब स्वर्गदूत ‘ शब्द से बदल दिया गया।

ब्रह्मांड के स्तरों/दायरों में, नेतेरु की अलग-अलग श्रेणियाँ (ईसाई धर्म में भी इन्हें स्वर्गदूतों और उच्च श्रेणी के स्वर्गदूतों (आर्कएंजल) के रूप में जाना जाता है) होती है।

 

8. सृष्टि चक्र

सृष्टि की प्रणाली, अनिवार्य लालसा या स्रोत की ओर प्रत्यावर्तन के साथ अनिवार्य निर्गमन और यात्रा करने, या आलोकित होने की प्रणाली हैः अस्तित्व के सभी रूप और चरण, दिव्यता से प्रवाहित होते हैं तथा वापस वहीं लौटने और रहने के लिए प्रयास करते हैं।

सभी आकाशगंगाओं को बाहर की ओर ले जाने वाले, बिग बैंग से निकले निष्कासन बल को गुरुत्वाकर्षण/संकुचन बलों द्वारा रोका जाता है, जो आकाशगंगाओं को पास खींचता है। वर्तमान समय में, संकुचन बलों की अपेक्षा बाहर की ओर धकेलने वाले बल अधिक हैं, इसलिए ब्रह्मांड की सीमा में अभी भी विस्तार हो रहा है।

वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि भविष्य में एक समय आएगा जब ब्रह्मांड का विस्तार रुक जाएगा और वह छोटा होने लगेगा। बिग बैंग के आग के गोले से निकला माइक्रोवेव विकिरण (जो अभी भी चारों ओर बढ़ रहा है) सिकुड़ने लगेगा और गर्म हो जाएगा, तथा फिर से रंग बदलेगा जब तक कि वह एक बार पुनः दिखाई नहीं देने लगेगा। आसमान लाल हो जाएगा, फिर नारंगी होगा, फिर पीला, और फिर सफेद हो जाएगा, और फिर … बिग क्रंच के साथ ख़त्म हो जाएगा। यानी सभी तत्व और ब्रह्मांड में मौजूद सारे विकिरण एक साथ एक ईकाई में विलीन हो जाएंगे।

एकीकृत हो चुके सिकुड़े ब्रह्मांड—न्यूट्रॉन सूप—के लिए बिग क्रंच अपने आप में अंत नहीं है, बल्कि वह एक नई सृष्टि की संभावना है, जिसे बिग बाउंस कहा जाता है।

आश्चर्य की बात नहीं है, कि प्राचीन मिस्री ग्रंथों में भी बिग क्रंच और बिग बाउंस मिस्र की आम प्रतीकात्मक भाषा में वर्णित है।

मिस्री ताबूत लेख, स्पेल 130 में इसे इस प्रकार से बताया गया है,

विभेदित सृजन के लाखों वर्षों के बाद, सृजन से पहले वाला कोलाहल वापस लौट आएगा। केवल परमात्मा (अतम) और अउसरा बचेंगेदिक् और काल अलगअलग नहीं होंगे।

प्राचीन मिस्री लेख हमें दो बिंदुओं के बारे में बताते हैं: इसमें पहला बिंदु है, सृष्टि चक्र के अंत में सृजित ब्रह्मांड का कोलाहल के दौर में वापस लौटना, जिसे बिग क्रंच के रूप में जाना जाता है। और दूसरा बिंदु है, ब्रह्मांड के एक नये चक्रीय पुनर्जन्म की संभावना, जिसे प्रतीकात्मक रूप से आउस-रा के रूप में दर्शाया गया है।

मिस्र में देवीदेवताओं के नामोंके ज़रिए क्या दर्शाया गया है, उसे जानने के लिए चलिए कुछ क्षण के लिए हम यहाँ ठहरते हैं।

आउस-रा में दो शब्द हैं। शब्द आउस का मतलब की शक्ति, या का मूल है। इस प्रकार, आउस-रा, का मतलब हुआ रा की शक्ति, अर्थात् रा का पुनर्जन्म

प्रत्यक्ष मृत्यु से जीवन की उत्पत्ति के सिद्धांत को आउस-रा कहा जाता है/था, जो नवीकरण की शक्ति का प्रतीक है। जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनः पुनर्जन्म वाली सृष्टि की चक्रीय प्रकृति, प्राचीन मिस्री ग्रंथों का मुख्य विषय है।

 

[इसका एक अंश: मिस्र का ब्रह्मांड विज्ञान: सजीव ब्रह्मांड , तीसरा संस्करण द्वारा लिखित मुस्तफ़ा ग़दाला (Moustafa Gadalla) ] 

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